School Days

स्कूल के वो पुराने दिन
( सौजन्य : उदय ठाकुर @uday_t2 )

यह एक ऐसी पोस्ट है, जिसकी पहली लाइन पढ़ते ही आप खुद इसके मुख्य पात्र हो जाएंगे।

बचपन में स्कूल के दिनों में क्लास के दौरान टीचर द्वारा पेन माँगते ही हम बच्चों के बीच राकेट गति से गिरते पड़ते सबसे पहले उनकी टेबल तक पहुँच कर पेन देने की अघोषित प्रतियोगिता होती थी।

जब कभी मैम किसी बच्चे को क्लास में कापी वितरण में अपनी मदद करने पास बुला ले, तो मैडम की सहायता करने वाला बच्चा अकड़ के साथ “अजीमो शाह शहंशाह” बना क्लास में घूम-घूम कर कापियाँ बाँटता और बाकी के बच्चें मुँह उतारे गरीब प्रजा की तरह अपनी चेयर से न हिलने की बाध्यता लिए बैठे रहते।

उस मासूम सी उम्र में उपलब्धियों के मायने कितने अलग होते थे टीचर ने क्लास में सभी बच्चो के बीच गर हमें हमारे नाम से पुकार लिया …..टीचर ने अपना रजिस्टर स्टाफ रूम में रखकर आने का बोल दिया तो समझो कैबिनेट मिनिस्टरी में चयन का गर्व होता था।

आज भी याद है जब बहुत छोटे थे, तब बाज़ार या किसी समारोह में हमारी टीचर दिख जाए तो भीड़ की आड़ ले छिप जाते थे। जाने क्यों, किसी भी सार्वजनिक जगह पर टीचर को देख हम छिप जाते थे ?
कैसे भूल सकते है उन हिंदी शिक्षक को जिनके आवेदन पत्रों से ये गूढ़ ज्ञान मिला कि बुखार नही *ज्वर पीड़ित होने के साथ नम्र निवेदन कहने के बाद ही तीन दिन का अवकाश मिल सकता है।

अपने उस कक्षा शिक्षक को कैसे भूले जो शोर मचाते बच्चों से भी ज्यादा ऊँची आवाज़ में गरजते:- “मछली बाज़ार है क्या?”…

वो टीचर तो आपको भी बहुत अच्छे से याद होंगे जिन्होंने आपकी क्लास को ‘स्कूल की सबसे शैतान क्लास’ की उपाधि से नवाज़ा था।

उन टीचर को तो कतई नही भुलाया जा सकता जो होमवर्क कापी भूलने पर ये कहकर कि …“कभी खाना खाना भूलते हो?”… बेइज़्ज़त करने वाले तकियाकलाम से हमें शर्मिंदा करते थे।

क्या आप भूल सकते है गिद्ध सी पैनी नज़र वाले अपने उस टीचर को जो बच्चों की टेबल के नीचे छिपाकर कापी के आखरी पन्नों पर चलती दोस्तों के मध्य लिखित गुप्त वार्ता को ताड़ कर अचानक खड़ा कर पूछते “तुम बताओ मैंने अभी अभी क्या पढ़ाया?”

क्लास में टीचर के प्रश्न पूछने पर उत्तर याद न आने पर कुछ लड़कों के हाव भाव ऐसे होते थे कि उत्तर तो जुबान पर रखा है बस जरा सा छोर हाथ नही आ रहा। ये ड्रामेबाज छात्र उत्तर की तलाश में कभी छत ताकते, कभी आँखे तरेरते, कभी हाथ झटकते। देर तक आडम्बर झेलते झेलते आखिर टीचर के सब्र का बांध टूट जाता — you, yes you, get out from my class ….।

सुबह की प्रार्थना में जब हम दौड़ते भागते देर से पहुँचते तो हमारे शिक्षकों को रत्तीभर भी अंदाजा न होता था कि हम शातिर छात्रों का ध्यान प्रार्थना में कम, और आज के सौभाग्य से कौन कौन सी टीचर अनुपस्थित है, के मुआयने में ज्यादा रहता था।

आपको भी वो टीचर याद है न, जिन्होंने ज्यादा बात करने वाले दोस्तों की सीट्स बदल उनकी दोस्ती कमजोर करने की साजिश की थी।

मैं आज भी दावा कर सकता हूँ, कि एक या दो टीचर्स शर्तिया ऐसे होते है जिनके सर के पीछे की तरफ़ अदृश्य नेत्र का वरदान मिलता है, ये टीचर ब्लैक बोर्ड में लिखने में व्यस्त रहकर भी चीते की फुर्ती से पलटकर कौन बात कर रहा है का सटीक अंदाज़ लगाते थे।

जब टीचर एग्जाम हाल में प्रश्न पत्र पकड़कर घूमते और पूछते “एनी डाउट्” तब
हर क्लास में एक ना एक बच्चा होता ही था, जिसे अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करने में विशेष महारत होती थी, और ये प्रश्नपत्र थामे एक अदा से खड़े होते है… मैम आई हैव आ डाउट इन कोश्च्यन नम्बर 11 ….हमें डेफिनेशन के साथ एग्जाम्पल भी देना है क्या? उस इंटेलिजेंट की शक्ल देख खू’न खौलता*।

परीक्षा के बाद जाँची हुई कापियों का बंडल थामे कॉपी बाँटने क्लास की तरफ आते शिक्षक साक्षात सुनामी लगते थे।

ये वो दिन थे, जब कागज़ के एक पन्ने को छूकर खाई ‘विद्या कसम’ के साथ बोली गयी बात, संसार का अकाट्य सत्य, हुआ करता थी।

सामने की सीट पर बैठने के नुकसान थे तो कुछ फायदे भी थे। मसलन चाक खत्म हुई तो मैम के इतना कहते ही कि “कोई भी जाओ बाजू वाली क्लास से चाक ले आना” सामने की सीट में बैठा बच्चा लपक कर क्लास के बाहर, दूसरी क्लास में “मे आई कम इन” कह सिंघम एंट्री करते।

“सरप्राइज़ चेकिंग” पर हम पर कापियाँ जमा करने की बिजली भी गिरती थी, सभी बच्चों को चेकिंग के लिए कापी टेबल पर ले जाकर रखना अनिवार्य होता था। टेबल पर रखे जा रहे कापियों के ऊँचे ढेर में अपनी कापी सबसे नीचे दबा आने पर तूफ़ान को जरा देर के लिए टाल आने की तसल्ली मिलती थी

हर समय एक ही डायलाग सुनते “तुम लोगो का शोर प्रिंसिपल रूम तक सुनाई दे रहा है।“
वो नि’र्दयी टीचर जो पीरियड खत्म होने के बाद का भी पाँच मिनिट पढ़ाकर हमारे लंच ब्रेक को छोटा कर देते थे।
चंद होशियार बच्चे हर क्लास में होते है जो मैम के क्लास में घुसते ही याद दिलाने का सेक्रेटरी वाला काम करते थे
“मैम कल आपने होमवर्क दिया था।” जी में आता था इस आइंस्टीन की औ’ला’द को डंडों से धुन के धर दो।

तमाम शरारतों के बावजूद ये बात सौ आने सही हैं कि बरसों बाद उन टीचर्स के प्रति स्नेह और सम्मान बढ़ जाता है, अब वो किसी मोड़ पर अचानक वो मिल जाए तो बचपन की तरह अब हम छिपेंगे नही।
आज भी जब मैं स्कूल या कालेज की बिल्डिंग के सामने से गुजरता हूँ, तो लगता है कि एक दिन था जब ये बिल्डिंग मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा थी। अब उस बिल्डिंग में न मेरे दोस्त है, न हमकों पढ़ाने वाले वो टीचर्स। बच्चो को लेट एंट्री से रोकने गेट बंद करते स्टाफ भी नही जिन्हें देखते ही हम दूर से चिल्लाते थे “गेट बंद मत करो भैय्या प्लीज़” वो बाबा भी नही है जो मैम से सिग्नेचर लेने जब जब लाल रजिस्टर के साथ हमारी क्लास में घुसते, तो बच्चों में ख़ुशी की लहर छा जाती “कल छुट्टी है”

अब स्कूल के सामने से निकलने से एक टिस सी उठती है जैसे मेरी कोई बहुत अजीज चीज़ छीन गयी हो। आज भी जब उस ईमारत के सामने से निकलता हूँ, तो पुराणी यादो में खो जाता हूं।

स्कूल/कालेज की शिक्षा पूरी होते ही व्यवहारिकता के कठोर धरातल में, अपने उत्तरदाईत्वो को निभाते , दूसरे शहरो में रोजगार का पीछा करते, दुनियादारी से दो चार होते, जिम्मेदारियों को ढोते हमारा संपर्क उन सबसे टूट जाता है, जिनसे मिले मार्गदर्शन, स्नेह, अनुशासन, ज्ञान, ईमानदारी, परिश्रम की सीख और लगाव की असंख्य कोहिनूरी यादें किताब में दबे मोरपंख सी साथ होती है, जब चाहा खोल कर उस मखमली अहसास को छू लिया।

3 thoughts on “School Days

  1. Gp's avatar

    Beautiful post👍👍👍👍👍

    Liked by 1 person

  2. Punamdevi Devi's avatar
    Punamdevi Devi July 20, 2024 — 6:22 pm

    Lajawab likhti ho yaar 🥰
    School ki wo saari baatein aankhon ke saamne aa gyi 👌♥️

    Liked by 1 person

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