Shmashan Vairagya

श्मशान वैराग्यभ्रामक वैराग्य

श्मशान वैराग्य का अर्थ है क्षणिक वैराग्य जो श्मशान में मृत शरीरों को जलाते हुए देखकर संसार की असारता के सम्बन्ध में मन में उत्पन्न होता है।

श्मशान वैराग्य का अर्थ है कि श्मशान में भष्मीभूत होते शवो को देख कर प्रत्येक मनुष्य को जीवन के अंतिम सत्य अर्थात मृत्यु में जीवन एवम जीवन के सभी प्राप्तवयो के विलीन होने का बोध होता है। श्मशान वैराग्य का अर्थ है कि मनुष्य जीवन की उपयोगिता सार्थकता एवम मृत्यु इत्यादि विषयो के चिंतन में लीप्त होता है। 

श्मशान वैराग्य क्षणिक होता है जो महज कुछ क्षणों या कुछ दिनों के लिए उत्पन्न होता है।

श्मशान की दिवारों के अन्दर जलती चिता से दूर बैठे समूहों में हंसी ठठ्ठा भी होता है और जीवन से मृत्यु तक के सफरनामे में समाये उतार चढ़ाव का फलसफ़ा भी बयां होता है। ये परिदृश्य हर बार देखा जा सकता है। घूम फिर कर यही बात कि, घुटनों पे हाथ रखकर सयाने लोग कहते हुए उठते हैं कि, बस यही (मृत्यु) सत्य है। कितना भी बटोर लो, जीवन में हाय-हाय कर लो ? सच का झूठ और झूठ का सच कर लो अन्त तो यही है। कुछ भी साथ नही ले जाना । सिकंदर भी……..।

एक बार यही बात फिर कि, क्यों लोग हाय-हाय करते हैं। यही बात कई बार मेरे सामने भी हुई है। पर मेरा विवेक इस अंतिम सत्य से सहमत होते हुए भी अपना भिन्न मत रखता हैं।

ये, बात कि मैं अपनी मृत्यु के पश्चात अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकूंगा ये सब यही रह जाएगा। तो क्या मैं ज़िंदगी को हाल पे छोड़ दूं, कर्म विहीन बन जाऊं ? तो फिर सवाल उठता है कि धन, संसाधन जुटाने के लिए, अच्छा वैभवपूर्ण या सुखी जीवन जीने के लिए व्यक्ति क्यों इतनी उठापटक करता है? आज के युग में जबकि पूरी ईमानदारी से काम करने से उपरोक्त सब प्राप्त नहीं हो सकता। कुछ तो आगा पीछा, करना ही पड़ता है। कोई कम करता है कोई ज्यादा। इस सत्य को मंच पर या लिख कर कोई भी स्वीकार नहीं करता। सब जानते हुए भी, व्यक्ति ऐसा क्यों करता है? मेरे विचार से व्यक्ति क्यों करता है? से क्यों करना पड़ता है? ये विचार उस बिन्दु तक ले जायेगा जहाँ उसका उत्तर निहित है।

सर्वप्रथम तो हम समझ लें कि हम भौतिकवादी व्यवस्था में सांस ले रहे है। आदर्श की बात तो लिखने बोलने में अच्छी लगती है, बाकी जब स्व की बात आती है तो सारे आदर्श पिघल जाते हैं। ऐसे लोग प्रतिशत में दशमलव के बाद कई शून्य के पश्चात् होंगे, जो केवल एक कमरे, एक दरी, न्यूनतम इच्छाओं, आवश्यकताओं के साथ पूरा जीवन स्वयं का व परिवार का भी बिना गिले- शिकवे के व्यतीत करते हुए अंतिम सांस भी संतोष की ले सकते हैं।तो चलिये बिन्दुवार विषय की पड़ताल उदाहरणों के माध्यम से करते हैं-

सर्वप्रथम, एक व्यक्ति जब किसी के पास कोई भी काम के लिए या यूं ही मिलने आता है तो यदि वह साइकिल पर आता है तो उसको देखते ही सम्मुख व्यक्ति का नापसंदगी के भाव आ जाते हैं (अपवाद भी परिस्थितिजन्य होते हैं)। ये भी हो सकता है कि सायकल सवार उसको शुभ समाचार देने ही आया हो, तब भी उसका स्वागत आत्मीयता से नहीं होता । वही व्यक्ति सायकल स्थान पर स्कूटर या मोटर सायकल पर आया हो तो उसका स्वागत पानी के एक ग्लास से होता है। इसके आगे बढ़ें तो यदि वह व्यक्ति मोटरकार में आता है तो बात पानी के साथ चाय की औपचारिकता तक तो आ जाती है। अब सोचिये वही व्यक्ति बिना किसी शुभ समाचार देने भी आया है पर महंगी कार जैसे कि मसांर्डीज-ऑडी-पजोरो आदि इत्यादि पर सवार हो कर आया है तो जिसके यहां आया है वह खड़े होकर बड़े आदर के साथ, शायद हाथ जोड़कर भी आसन देता है और जबरदस्ती समयानुसार खानपान का प्रबंध करता है। इसे हम आर्थिक रुतबा कह सकते हैं।

यह स्थिति हासिल करने के लिए धन उपार्जन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी? तो पहला कारण जीवन में सम्मान पाने आर्थिक सुदृढ़ता की प्राप्ति हेतु हर प्रकार के उपक्रम-गलत या सही, स्वयं को न्यायोचित लगते हैं। यहां इसके विरूद्व अविलंब तीखी प्रतिक्रिया आयेगी कि ज्ञानी, कलाकार, साहित्यकार, कवि, गज़लसरा जैसा अर्थात् जिस पर मां शारदा का आशीर्वाद हो, उसका भी उचित सम्मान होता है। परन्तु यथार्थ ये भी है कि ऐसा हर व्यक्ति धन संपन्न है तभी उसका आदर होता है। ये पीड़ादायक सत्य है। आप किसी भी क्षेत्र में इस असंतुलित दृष्टिकोण जनित व्यवहार प्रकट या छद्म रूप में पायेगें।

आगे बढ़ते है- सामाजिक स्थिति। यदि उपरोक्त व्यक्ति भी, यदि परिवार विहीन है तो उसकी स्थिति कम से कम एक अंक से तो कम हो जाती है। इसे और विस्तार से समझें। एक व्यक्ति आप के घर आता है वह अविवाहित है या विधुर है या विवाहित होते हुए भी अकेला आता है। तो आप प्रयासत: उसे अतिथि कक्ष तक प्रवेश देंगे। वो चाहे कितना भी निकट या प्रिय हो। दूसरी ओर वो संपन्न या साधारण व्यक्ति भी सपत्नीक आपके घर आता है तो वह घर के अन्दर तक ले जाया जाता है। उसके प्रति आपके परिवार का एक अनाम-सा, अपरिभाष्य विश्वास होता है। आदमी इस प्रतिष्ठा को पाने के लिए भी जीवन में जद्दोजहद करता है। क्योंकि विवाह होने से लेकर वैवाहिक जीवन निभाना अपने आप में कला का भी विषय है और सामाजिक विज्ञान का भी विषय है, जो आसान तो नहीं है। इसे जीवन पर्यंत निभाने के लिए समझदारी के साथ समझौते का गुण भी आवश्यक होता है। क्या यह स्थिति बगैर संघर्ष या घर्णष के प्राप्त हो सकती है?

तीसरा- शैक्षणिक योग्यता। बीते जमाने में इसका दायरा सीमित रहा हो। इसीलिए राज्य, समाज एवम् उद्योग-धन्धे की लगाम चन्द लोगों के हाथों मे ही रहती थी। वे अपने पद-प्रतिष्ठा का उपयोग- दुरूपयोग करते रहते थे। आज भी अशिक्षित लोग कहीं न कहीं छले जाते है। अत: हमारी पीढ़ी से बीती तीसरी पीढ़ी ने हमारे पढ़ने लिखने पर जोर दिया। विगत दो-तीन दशकों में तो इसमें अकल्पनीय बदलाव कहें या प्रगति, जबरदस्त तरीके से आई है। सोचें यदि एक व्यक्ति हमारे पास किसी कार्य से आता है और यदि वह कुशल होने के साथ शिक्षित भी है तो हमारा नजरिया उसके प्रति स्वत: सम्मान जनक हो जाता है। इसके विपरित एक मेहनतकश व्यक्ति अनपढ़ या आंशिक शिक्षित है तो उसे कम आदर मिलता है। उसे नौकरी भी उसी स्तर की मिलती है।

शिक्षित होने का एक पीड़ादायक कहा जा सकने वाला पहलू यह भी है कि यह दिन प्रतिदिन अति खर्चीला होता जा रहा है। उसके लिए नैसर्गिक प्रवीणता के अतिरिक्त काफी धन और सिफारिशों या सहारे की आवश्यकता होती है।

आशय ये है कि केवल धन के लिए, प्रदर्शन के लिए, दूसरों को नीचा दिखाने के लिए ही व्यक्ति सारे उपक्रम नहीं करते या एक मात्र यही लक्ष्य नहीं होता है। तो क्या ये स्वाभाविक रूप से अपने देश, समाज, कुटुंब में प्रतिष्ठा पाने की होड़ नहीं है? अब ये भी न हो तो आप की भौतिकवादी व्यवस्था में उसके कर्म करने की इच्छा ही मर जायेगी।

अर्जुन अपने लक्ष्य के लिए संघर्ष नहीं करता तो वह आज प्रतिष्ठित धनुर्धारी नहीं कहलाता। इस लक्ष्य को पाने के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसे गलत सही का सहारा लेना पड़ा। श्री कृष्ण ने भी जो कर्म का सिद्धान्त समझाया है कि फल की चिंता न करें, केवल कर्म करते चलें। मेरे मन से तो इसका भावार्थ ये भी हो सकता है कि कर्म निरंतर करते रहना है, असफलता से दुखी या निराश होकर कर्म से विमुख नहीं होना है। दिल पर हाथ रख कर सोचिये कि बिना फल पाये क्या हम बेहतर कर्म लगातार कर सकते है या यदि कर्म का फल न ही मिले या नहीं ही मिलेगा यदि यह पूर्वनिर्धारित हो जाये तो क्या हम फिर भी कर्म करते रहेंगें? कहने को बिना फल के कर्म करने को, समझाने के लिए अच्छा आदर्श है पर यदि वो वस्तु हासिल नहीं ही होगी, यह पता चल जाय तो अच्छे-अच्छे सूरमा भी प्रयत्न छोड़ देंगे।

हम भली-भांति जानते हैं कि हम कुछ भी ठोस वस्तु अपने साथ नहीं ले जाएंगे, पर अच्छे बुरे किये हुए कार्यें से अर्जित यश-अपयश ही हमारी विरासत होगी। इसे स्थूल रुप से सोचें तो व्यक्ति इस फ़ानी दुनिया में भी सुख से, सम्मान के साथ, पद के साथ एक प्रतिष्ठित व्यक्ति के रुप में मृत्यु के पूर्व जीना चाहता है। तरीके कई हो सकते है पर सुसुप्त या जागृत लक्ष्य तो यही है। अपने नाम की जय हो या आदरपूर्वक जन-जन में लिया जाये, ये किसका स्वप्न नहीं होता? मेरी प्रबल मान्यता है कि प्रशंसा या पुरस्कार के बिना रचना या रचना की श्रृंखला संभव नहीं है। प्रथम दृष्टा में तो लोग इसे नकार देंगे। पर सोचकर देखिये यदि सम्पादित कार्य को दो शब्द भी प्रशंसा के न मिलें, पुरस्कार केवल नगद राशि का ही नहीं अपितु पीठ ठोंक कर भी चार लोगों में परिचय न कराया जाय तो रचनाकार की जिजीविषा ही समाप्त हो जावेगी।

अपनी इन्द्रियाँ को ही ले लिजिये –
आंखों के लिए अच्छा दृश्य, अच्छी छवि, अच्छा रूप-श्रृंगार, अच्छी साफ सुथरी जगह उसकी दृष्टि के लिए पुरस्कार है।
कानों के लिए स्वर माधुर्य व नासिका के लिए सुगंध पुरस्कार ही तो है।
और ये इन्द्रियां भी सतत् इस पुरस्कार की लिए बाट जोहती हैं।
उपसंहार स्वरूप जीवन के रहते व्यक्ति सारे उपक्रम स-सम्मान जीने के लिए करता है। यही सम्मान उसकी अंतिम यात्रा का सामान होता है .

Leave a comment

search previous next tag category expand menu location phone mail time cart zoom edit close